जीवन में न तो उदासी है और न निराशा है। उदासी और निराशा होगी–तुममें। जीवन तो बड़ा उत्फुल्ल है। जीवन तो बड़ा उत्सव से भरा है। जीवन जीवन तो सब जगह–नृत्यमय है; नाच रहा है। उदास…?
तुमने किसी वृक्ष को उदास देखा? और तुमने किसी पक्षी को निराश देखा? चांदत्तारों में तुमने उदासी देखी? और अगर कभी देखी भी हो, तो खयाल रखना: तुम अपनी ही उदासी को उनके ऊपर आरोपित करते हो।
अहंकार है कारण–उदासी और निराशा का।
निराशा का क्या अर्थ होता है? निराशा का अर्थ होता है: तुमने आशा बांधी होगी, वह टूट गई। अगर आशा न बांधते, तो निराशा न होती। निराशा आशा छी छाया है।
आदमी भर आया बांधता है; और तो कोई आशा बांधता ही नहीं। आदमी ही कल की सोचता है, परसों की सोचता है, भविष्य को सोचता है। सोचता है, आयोजन करता है बड़े कि कैसे विजय करूं, कैसे जीतूं?कैसे दुनिया की दिखा दूं कि मैं कुछ हूं? कैसे सिकंदर बन जाऊं? फिर नहीं होती जीत, तो निराशा हाथ आती है। सिकंदर भी निराश होकर मरता है; रोता हुआ मरता है।
जो भी आदमी आशा से जीएगा, वह निराश होगा। आशा का मतलब है: भविष्य में जीना; अहंकार की योजनाएं बनाना; और अहंकार को स्थापित करने के विचार करना। फिर वे विचार असफल होए। अहंकार जीत नहीं सकता। उसकी जीत संभव नहीं है। उसकी जीत ऐसे ही असंभव है, जैसे सागर की एक लहर सागर के खिलाफ जीतना चाहे। जीतेगी? सागर की लहर सागर का हिस्सा है।
मेरा एक हाथ मेरे खिलाफ जीतना चाहे, कैसे जीतेगा? वह तो बात ही पागलपन की है। मेरे हाथ मेरी ऊर्जा है। हम लहरें हैं–एक ही परमात्मा की। जीत और हार का कहां सवाल है? या तो परमात्मा जीतता है, या परमात्मा हारता है। हमारी तो न कोई जीत है, न कोई हार है। चूंकि हम जीत के लिए उत्सुक हैं, इसलिए हार निराश करती है।
भक्त का इतना ही अर्थ है; भक्त कहता है: तू चाहे-जीत; तू चाहे–हार;और तुझे जो मेरा उपयोग करना है–कर ले। हम तो उपकरण हैं। हम तो बांस की पोंगरी हैं, तुझे जो गीत गाना हो–गा ले। गीत हमारा नहीं है। हम तो खाली पोंगरी हैं। गाना हो, तो ले। न गाना हो–तो न गा। तेरी मर्जी। न गा, तो सब ठीक; गा–तो सब ठीक।
ऐसी दशा में निराशा कैसे बनेगी? भक्त निराश नहीं होता। निराश हो ही नहीं सकता। उसने निराशा का सार इंतजाम तोड़ दिया। आशा ही न रखी, तो निराशा कैसे होगी?
अब तुम कहते हो: मन उदास क्यों होता है? जीवन में उदासी क्यों है?उदासी का अर्थ ही यही होता है कि तुम जो करना चाहते हो, नहीं कर पाते। जगह-जगह पड़ गया हूं। और मैं पागल हुआ जा रहा हूं कि यह सब तो मैं इकट्ठे तो बन नहीं सकता! और इस सब ऊहापोह में मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि मैं क्या बनना चाहता हूं!
मनुष्य के जीवन की अधिकतम उदासी का कारण यही है कि तुम सहज नहीं जी रहे हो। तुम्हारा हृदय जहां स्वभावतः जाता है, वहां नहीं जा रहे हो। तुमसे कुछ इतर लक्ष्य बना लिए हैं।