बाहर की शराब से ओंकार की शराब तक
मैं शराबियों को भी संन्यास देता हूं।
और उनसे कहता हूं, बेफिक्री से लो!
पंडितों से तो तुम बेहतर हो। कम से कम विनम्र तो हो। कम से कम यह तो पूछते हो सिर झुकाकर कि क्या मैं भी पात्र हूं ???
क्या मेरी भी योग्यता है ???
क्या आप मुझे भी अंगीकार करेंगे ???
वह तो तिलकधारी पंडित है, वह सिर नहीं झुकाता, वह अकड़ कर खड़ा है। वह तो पात्र है ही! वह तो सुपात्र है! वह तो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ है! वह तो जन्म से ही ब्रह्म को जानता पैदा हुआ है!
शराबी उससे लाख दर्जा बेहतर है। कम से कम सिर तो झुकाए है, विनम्र तो है। अपने पात्रता का दावा तो नहीं कर रहो है। अहंकार तो नहीं है, अस्मिता तो नहीं है।
मैं उसे अंगीकार करता हूं। और यह मेरे अनुभव में आया है कि जैसे ही व्यक्ति ध्यान में उतरना शुरू करता है, शराब छूटनी शुरू हो जाती है।
मैं शराबबंदी का पक्षपाती नहीं हूं।
मैं तो चाहता हूं कि लोगों को असली शराब पिलायी जाए तो वे अपने-आप झूठी शराब पीना बंद कर देंगे। ऐसी शराब पिलायी जाए कि एक दफा पी ली तो पी ला, फिर जिसका नशा उतरता नहीं।
“तारी” शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। यह उस बेहोशी का नाम है जो परमात्मा को पीकर ही उपलब्ध होती है। तारी लग जाती है। तार जुड़ जाते हैं। फिर टूटते ही नहीं।
फिर एक “अनाहत संगीत” भीतर बजने लगता है।
यह शराब नहीं है जो अंगूरों से ढलती है, यह वह शराब है जो आत्मा में ढलती है। उस आत्मा में, जिस को पाने के लिए–
“नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो”
जिसे पाने के लिए प्रवचन किसी काम नहीं आते।
न मेधया न बहुन श्रुतेन।
और न बुद्धि काम आती, न शास्त्र काम आते।
यं एवैष वृणुते तेन लभ्यस
उन्हें मिलती है यह, जिन्हें परमात्मा वरण करता है।
तस्यैष आत्मा विवृणुते स्वाम।।
और यह आत्मा अपने रहस्य उनके सामने खोल देती है।
मगर परमात्मा किसको वरण करता है ??? पियक्कड़ों को, रिन्दों को।
तोड़ दो तोबा और जी भर कर पीओ।
दीपक बार नाम का